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अग्नी॑षोमा पिपृ॒तमर्व॑तो न॒ आ प्या॑यन्तामु॒स्रिया॑ हव्य॒सूद॑:। अ॒स्मे बला॑नि म॒घव॑त्सु धत्तं कृणु॒तं नो॑ अध्व॒रं श्रु॑ष्टि॒मन्त॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agnīṣomā pipṛtam arvato na ā pyāyantām usriyā havyasūdaḥ | asme balāni maghavatsu dhattaṁ kṛṇutaṁ no adhvaraṁ śruṣṭimantam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्नी॑षोमा। पि॒पृ॒तम्। अर्व॑तः। नः॒। आ। प्या॒य॒न्ता॒म्। उ॒स्रियाः॑। ह॒व्य॒ऽसू॒दः॑। अ॒स्मे इति॑। बला॑नि। म॒घव॑त्ऽसु। ध॒त्त॒म्। कृ॒णु॒तम्। नः॒। अ॒ध्व॒रम्। श्रु॒ष्टि॒ऽमन्त॑म् ॥ १.९३.१२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:93» मन्त्र:12 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:29» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राज प्रजा के पुरुषो ! तुम (अग्नीषोमा) पालन के हेतु अग्नि और पवन के समान (नः) हम लोगों के (अर्वतः) घोड़ों को (पिपृतम्) पालो, जैसे (हव्यसूदः) दूध, दही आदि पदार्थों की देनेवाली (उस्रियाः) गौ (आ, प्यायन्ताम्) पुष्ट हों वैसे (नः) हम लोगों के (श्रुष्टिमन्तम्) शीघ्र बहुत सुख के हेतु (अध्वरम्) व्यवहाररूपी यज्ञ को (मघवत्सु) प्रशंसित धनयुक्त स्थान, व्यवहार वा विद्वानों में (कृणुतम्) प्रकट करो, (अस्मे) हम लोगों के लिये (बलानि) बलों को (धत्तम्) धारण करो ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पवन और बिजुली के विना किसी की बल और पुष्टि नहीं होती, इससे इनको अच्छे विचार से कामों में लाना चाहिये ॥ १२ ॥इस सूक्त में पवन और बिजुली के गुण वर्णन करने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह छठे अध्याय का २९ उनतीसवाँ वर्ग और प्रथम मण्डल का १४ चौदहवाँ अनुवाक तथा ९३ त्रानवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे राजप्रजाजनौ युवामग्नीषोमेव नोऽस्माकमर्वतः पिपृतं यथा हव्यसूद उस्रिया आप्यायन्तां तथा नोऽस्माकं श्रुष्टिमन्तमध्वरं मघवत्सु कृणुतमस्मे बलानि धत्तम् ॥ १२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्नीषोमा) पालनहेतू अग्निवायू इव (पिपृतम्) प्रपिपूर्त्तम् (अर्वतः) अश्वान् (नः) अस्माकम् (आ) (प्यायन्ताम्) पुष्टा भवन्तु (उस्रियाः) गावः (हव्यसूदः) हव्यानि दुग्धादीनि क्षरन्ति ताः (अस्मे) अस्मभ्यम् (बलानि) (मघवत्सु) प्रशस्तपूज्यधनयुक्तेषु स्थानेषु व्यवहारेषु विद्वत्सु वा (धत्तम्) धरतम् (कृणुतम्) कुरुतम् (नः) अस्माकम् (अध्वरम्) व्यवहारयज्ञम् (श्रुष्टिमन्तम्) शीघ्रं बहुसुखहेतुम् ॥ १२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि वायुविद्युद्भ्यां विना कस्यचिद्बलपुष्टी जायेते तस्मादेते सुविचारेण कार्य्येषूपयोजनीये ॥ १२ ॥अत्र वायुविद्युतोर्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति षष्ठाध्यायस्यैकोनत्रिंशत्तमो वर्गः।  प्रथममण्डले चतुर्दशोऽनुवाकस्त्रयोनवतितमं सूक्तं च समाप्तम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वायू व विद्युतशिवाय कुणाचे बळ वाढत नाही व पुष्टी होत नाही. त्यामुळे त्यांचा विचारपूर्वक उपयोग करून घेतला पाहिजे. ॥ १२ ॥